आज प्रकाशित सामग्री श्री संजय कुमार जैन जी द्वारा भेजी गई है. उन्होंने यह सामग्री उपरोक्त ब्लॉग के फेसबुक https://www.facebook.com/groups/mahavirswamiji/ पर बने ग्रुप mahavirswamiji@groups.facebook.com पर भेजी थीं. जिससे यहाँ पर प्रकाशित किया जा रहा है. श्री संजय जैन जी ने दिल्ली विश्वविधालय से शिक्षा प्राप्त की हुई है. इनका विवाह श्रीमती रजनी जैन से हो रखा है. इनका जन्म 6 सितम्बर 1968 को हुआ था. फ़िलहाल भारतीय जीवन बीमा निगम और नेशनल इन्शोरेश कम्पनी लि. में सन 2002 से कार्यरत है. इनके पास जो भी जानकारी होती हैं, उसको दूसरों में बांटने में बहुत रूचि हैं. इसी कारण से फेसबुक आदि पर अनेक संस्थाओं से जुडे है और जानकारी को साझा करते रहते हैं.
भगवान महावीर स्वामी जी का सच्चा संदेश पूरे विश्व में फैले और जैन समाज में कुछ फैली कुरीतियों पर रोक लगे.जिससे संपूर्ण संसार जगत में द्वेष भावना खत्म होकर प्यार-प्रेम और भाईचारा कायम हो."जैन" कोई जाति नहीं,धर्म है.जैन-धर्म के सिध्दांतों में जो दृढ विश्वास रखता है और उनके अनुसार आचरण करता है, वही सच्चा जैन कहलाता है.इसको कोई भी अपनी स्वेच्छा से अपना सकता है.
तीर्थंकर महावीर स्वामी जी
12 अगस्त 2011
हिंसा की परिभाषा क्या है ?
आज हिंसा का परिभाषा क्या व्यक्त करें. आज व्यक्ति का भौतिक वास्तुनों के मोह में फंसकर इतना निर्दयी हो गया है कि-कदम-कदम पर झूठ बोलना, धोखा देना, सच का गला घोट देना आदि जैसे अनैतिक कार्यों में लिप्त होकर अपनी आत्मा की आवाज को मारकर दूसरों को दुःख पहुँचाने की साजिश कर रहा है. आज का मनुष्य अपने दुःख में दुखी कम दूसरे के सुख में दुखी ज्यादा हैं. आज का मनुष्य अपने स्वार्थवश "इंसानियत" को अपने दिलों से बाहर निकाल कर फैक चुका है. दया, स्नेह और प्यार जैसे शब्द आज किताबों में बंद होकर रह गए है. अभी कुछ दिन पहले की बात हैं. एक छोटी सी बात पर चेन्नई में-वाइक से टक्कर होने पर एक चौराहे की लालबत्ती पर सारे आम एक व्यक्ति को जान से मार दिया गया था. वहाँ उसको कोई बचाने वाला नहीं आया या यह कहे चार आरोपियों को उस पर कोई दया नहीं आई. यह तो मात्र के घटना है. पूरे देश में ऐसी न जाने कितनी घटनाएँ होती हैं?
पिछले कुछ महीनों से चली आ रही जैन धर्म की तपस्या कहूँ या उपवास के दौरान मैंने जाना कि-मुझसे भी आने-अनजाने में कई बार हिंसा हुई है. जिसका पश्चाताप इन दिनों तपस्या करके कर भी रहा हूँ.
नीचे दो नं. पर लिखा-झूठ बोलना आदि मुझे अपने पेशेगत बोलना या कहना पड़ा, क्योंकि जब मेरे थोड़े से झूठ बोल देने से किसी गरीब का भला हो रहा हो.तब ही मैंने झूठ बोला था या कठु वचन कहना. छह नं. पर लिखा-इन दिनों पत्नी द्वारा झूठे केसों में फँसा दिए जाने के कारण बहुत रोकर भी हिंसा की. आठ नं. पर लिखा-हर अनैतिक कार्य की अपने पेशेगत निंदा करके भी हिंसा की है, वैसे छबीस नं. पर लिखे अनुसार अपना फर्ज अदा ना करना भी हिंसा हैं. अपने फर्ज का कर्तव्य पूरा करने के उद्देश्य से मैंने अनेकों बार हिंसा की है. दस नं. पर लिखे अनुसार-मैंने अपनी अनेकों बार बढाई हाँककर भी हिंसा की. उसके पीछे मेरी "कथनी और करनी" में फर्क न होने के कारण लोगों में अच्छे संस्कारों का समावेश हो. इसलिए अपनी बढ़ाई भी अनेकों बार हांककर हिंसा की है.
उनीस नं. पर लिखे-अनुसार मैंने लगभग 31 साल की उम्र तक अपनी कई इन्द्रियों पर काबू रखने के साथ ही ब्रह्मचर्य का पालन किया. उसके बाद संसारिक जीवन के दायित्व के चलते एक इंद्री को कामदेव के हवाले करना जरुरी हो गया था और अब पिछले तीन सालों से उसपर भी काबू किया हुआ है. मगर फिर अपनी अन्य(मोह, माया, क्रोध आदि) इन्द्रियों को काबू रखते हुए जीवन रूपी बेल को आगे बढ़ाता रहा. हाँ, उस दौरान कभी-कभी अपने पेशेगत सरकारी व गैर सरकारी अधिकारीयों पर उनकी कार्यशैली के कारण क्रोध भी आया और उस द्वारा माफ़ी मांग लेने और अपनी कार्यशैली में सुधार कर लिये जाने पर क्षमा भी कर दिया. कई पत्रकारों की तरह से हर महीने मंथली आदि लेने की कोशिश नहीं की या उसकी नौकरी छीने का प्रयास नहीं किया था.
भगवान महावीर स्वामी के संदेश-"जियो और जीने दो" का सच्चे दिल से पालन करने का प्रयास. बीस नं. पर लिखे-अनुसार दबे हुए कलह को उखाड़ना हिंसा है. यह भी मुझे मज़बूरीवश भविष्य में पत्नी द्वारा डाले फर्जी केसों में अपने वचाव और भ्रष्ट न्याय व्यवस्था में "सच " को बताकर हिंसा करनी होगी. इस हिंसा के पीछे भी का उद्देश्य यह होगा कि "सच" की जीत हो और अन्य किसी पीड़ित को ऐसी पीड़ा ना सहनी पड़े. दोस्तों, इसके अलावा मैंने कभी कोई हिंसा नहीं की है. शुभचिंतकों और आलोचकों मैंने तो अपनी आने-अनजाने में हुई "हिंसा" का वर्णन कर दिया है.
अगर मेरे द्वारा की हिंसा क्षमा योग्य हो तो क्षमा कर देना. जब तक इस दिल और दिमाग में अपने आने-अनजाने में हुए पापों का प्रश्चाताप पूरा नहीं होता है. तब तक मेरी तपस्या यूँ ही चलती रहेंगी.आपकी हिंसा का उपाय आप जानो.
किसी को मारना या कष्ट देना मात्र ही हिंसा नहीं है. हिंसा के असंख्य रूप हमारे जीवन में इस प्रकार घुल गए हैं कि उन्हें पहचाना भी कठिन हो गया है.हिंसा के सूक्ष्म रूपों को दिग्दर्शन प्रस्तुत प्रकरण में कराया गया है.
1. किसी जीव को सताना, हिंसा है. 2. झूठ बोलना, कठु बोलना हिंसा है. 3 दंभ करना, धोखा देना हिंसा है. 4. किसी की चुगली करना हिंसा है. 5. किसी का बुरा चाहना हिंसा है. 6. दुःख होने पर रोना-पीटना हिंसा है.7. सुख में अंहकार से अकडना हिंसा है. 8. किसी की निंदा या बुराई करना हिंसा है. 9.गाली देना हिंसा है. 10. अपनी बढ़ाई हाँकना हिंसा है. 11.किसी पर कलंक लगाना हिंसा है. 12. किसी का भद्दा मजाक करना हिंसा है. 13. बिना किसी वजय किसी पर क्रोध करना हिंसा है. 14. किसी पर अन्याय होते देखकर खुश होना हिंसा है. 15. शक्ति होने पर भी अन्याय को न रोकना हिंसा है. 16. आलस्य और प्रमाद में निष्क्रिय पड़े रहना हिंसा है. 17. अवसर आने पर भी सत्कर्म से जी चुराना हिंसा है. 18. बिना बाँटे अकेले खाना हिंसा है.19. इन्द्रियों का गुलाम रहना हिंसा है. 20. दबे हुए कलह को उखाड़ना हिंसा है. 21. किसी की गुप्त बात को प्रकट करना हिंसा है. 22. किसी को नीच-अछूत समझना हिंसा है. 23. शक्ति होने हुए भी सेवा न करना हिंसा है. 24. बड़ों की विनय-भक्ति न करना हिंसा है. 25. छोटों से स्नेह, सद्भाव न रखना हिंसा है.26. ठीक समय पर अपना फर्ज अदा न करना हिंसा है. 27. सच्ची बात को किसी बुरे संकल्प से छिपाना हिंसा है "राष्ट्र" संत-उपाध्याय कवि श्री अमर मुनि जी महाराज द्वारा लिखित "जैनत्व की झाँकी" से साभार
मैं बहुत ज्यादा हिंसक हूँ
नोट:-अपने पेशेगत(पत्रकारिता) एक-दो दिन में नीचे लिखे लिंकों पर भी हिंसा की है. पढ़ने के इच्छुक हो तो जरुर पढ़ें.
01 अगस्त 2011
जैन का जीवन कैसा होता है
वहीं आदर्श जीवन है वही सच्चा जैन-जीवन है, जिसके कण-कण और क्षण-क्षण में धर्म की साधना झलकती हो. धर्ममय जीवन के आदर्शों का यह भव्य चित्र प्रस्तुत है-'जैन जीवन' में.
1. जैन भूख से कम खाता है. जैन बहुत कम बोलता है. जैन व्यर्थ नहीं हंसता है. जैन बडो की आज्ञा मानता है. जैन सदा उद्यमशील रहता है.
2. जैन गरीबों से नहीं शर्माता. जैन वैभव पाकर नहीं अकड़ता. जैन किसी पर नहीं झुंझलाता. जैन किसी से छल-कपट नहीं करता. जैन सत्य के समर्थन में किसी से नहीं डरता.
3. जैन हृदय से उदार होता है. जैन हित-मित मधुर बोलता है. जैन संकट-काल में हँसता है. जैन अभ्युदय में भी नम्र रहता है.
4. अज्ञानी को जीवन निर्माणार्थ ज्ञान देना मानवता है. ज्ञान के साथ विद्यालय आदि खोलना मानवता है.
5. भूखे प्यासे को संतुष्ट करना मानवता है. भूले हुए को मार्ग बताना मानवता है. जैन मानवता का मंगल प्रतीक है.
6. जहाँ विवेक होता है, वहाँ प्रमाद नहीं होता. जहाँ विवेक होता है, वहाँ लोभ नहीं होता. जहाँ विवेक होता है, वहाँ स्वार्थ नहीं होता. जहाँ विवेक होता है, वहाँ अज्ञान नहीं होता.जैन विवेक का आराधक होता है.
7. प्रतिदिन विचार करो कि मन से क्या क्या दोष हुए हैं. प्रतिदिन विचार करो कि वचन से क्या क्या दोष हुए हैं. प्रतिदिन विचार करो कि शरीर से क्या क्या दोष हुए हैं.
8. सुख का मूल धर्म है. धर्म का मूल दया है. दया का मूल विवेक है. विवेक से उठो. विवेक से चलो. विवेक से बोलो. विवेक से खाओ. विवेक से सब काम करो.
9. पहनने-ओढने में मर्यादा रखो. घूमने-फिरने में मर्यादा रखो. सोने-बैठने में मर्यादा रखो. बड़े-छोटो की मर्यादा रखो.
10. मन से दूसरों का भला चाहना परोपकार है. वचन से दूसरों को हित-शिक्षा देना परोपकार है. शरीर से दूसरों की सहायता करना परोपकार है. धन से किसी का दुःख दूर करना परोपकार है. भूखे प्यासे को संतुष्ट करना परोपकार है. भूले को मार्ग बताना परोपकार है. अज्ञानी को ज्ञान देना या दिलवाना परोपकार है. ज्ञान के साधन विद्यालय आदि खोलना परोपकार है. लोक-हित के कार्यों में सहर्ष सहयोग देना परोपकार है.
11. बिना परोपकार के जीवन निरर्थक है. बिना परोपकार के दिन निरर्थक है. जहाँ परोपकार नहीं वहाँ मनुष्यत्व नहीं. जहाँ परोपकार नहीं वहाँ धर्म नहीं. परोपकार की जड़ कोमल हृदय है. परोपकार का फल विश्व-अभय है. परोपकार कल करना हो तो आज करो. परोपकार आज करना हो तो अब करो .
12. बिना धन के भी परोपकार हो सकता है. किन्तु बिना मन के नहीं हो सकता.
13. धन का मोह परोपकार हीं होने देता. शरीर का मोह परोपकार नहीं होने देता.
14. परोपकार करने के लिए जो धनी होने की राह देखे वो मूर्ख है. बदले कि आशा से जो परोपकार करे वो मूर्ख है. बिना स्नेह और प्रेम के जो परोपकार करे वो मूर्ख है.
15. भोजन के लिए जीवन नहीं किन्तु जीवन के लिए भोजन है. धन के लिए जीवन नहीं किन्तु जीवन के लिए धन है. धन से जितना अधिक मोह उतना ही पतन. धन से जितना कम मोह उतना ही उत्थान.
7. प्रतिदिन विचार करो कि मन से क्या क्या दोष हुए हैं. प्रतिदिन विचार करो कि वचन से क्या क्या दोष हुए हैं. प्रतिदिन विचार करो कि शरीर से क्या क्या दोष हुए हैं.
8. सुख का मूल धर्म है. धर्म का मूल दया है. दया का मूल विवेक है. विवेक से उठो. विवेक से चलो. विवेक से बोलो. विवेक से खाओ. विवेक से सब काम करो.
9. पहनने-ओढने में मर्यादा रखो. घूमने-फिरने में मर्यादा रखो. सोने-बैठने में मर्यादा रखो. बड़े-छोटो की मर्यादा रखो.
10. मन से दूसरों का भला चाहना परोपकार है. वचन से दूसरों को हित-शिक्षा देना परोपकार है. शरीर से दूसरों की सहायता करना परोपकार है. धन से किसी का दुःख दूर करना परोपकार है. भूखे प्यासे को संतुष्ट करना परोपकार है. भूले को मार्ग बताना परोपकार है. अज्ञानी को ज्ञान देना या दिलवाना परोपकार है. ज्ञान के साधन विद्यालय आदि खोलना परोपकार है. लोक-हित के कार्यों में सहर्ष सहयोग देना परोपकार है.
11. बिना परोपकार के जीवन निरर्थक है. बिना परोपकार के दिन निरर्थक है. जहाँ परोपकार नहीं वहाँ मनुष्यत्व नहीं. जहाँ परोपकार नहीं वहाँ धर्म नहीं. परोपकार की जड़ कोमल हृदय है. परोपकार का फल विश्व-अभय है. परोपकार कल करना हो तो आज करो. परोपकार आज करना हो तो अब करो .
12. बिना धन के भी परोपकार हो सकता है. किन्तु बिना मन के नहीं हो सकता.
13. धन का मोह परोपकार हीं होने देता. शरीर का मोह परोपकार नहीं होने देता.
14. परोपकार करने के लिए जो धनी होने की राह देखे वो मूर्ख है. बदले कि आशा से जो परोपकार करे वो मूर्ख है. बिना स्नेह और प्रेम के जो परोपकार करे वो मूर्ख है.
15. भोजन के लिए जीवन नहीं किन्तु जीवन के लिए भोजन है. धन के लिए जीवन नहीं किन्तु जीवन के लिए धन है. धन से जितना अधिक मोह उतना ही पतन. धन से जितना कम मोह उतना ही उत्थान.
"राष्ट्र" संत-उपाध्याय कवि श्री अमर मुनि जी महाराज द्वारा लिखित "जैनत्व की झाँकी" से साभार
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